सँस्कार

राष्ट्रगठन में दशविध संस्कार की आवश्यकता
श्री विजयकुमार मैत्र सात्वती मई 2004

मानव-जन्म दुर्लभ और श्रेष्ठ जन्म होता है। केवल इसमें पैदा लेने पर ही मनुष्य देवत्व अर्थात परमज्ञान, परमषक्ति और परमतृप्ति का स्वाद पा सकता है। देवत्व प्राप्त करने में सर्वप्रथम चरित्रबल अर्जन करने की जरूरत होती है। इस जन्म-संस्कार को उन्नत बनाने के लिए एवं उन्नत जन्म-संस्कार के उपर चरित्र का रुप ठीक करने हेतु यथोचित विधि और नीति का पालन करना चाहिए। आर्यऋषिगण दृष्टापुरुष थे। उनलोगों की दिव्यदृष्टि में ये नीतिविधियां जाज्वल्यमान परिस्फुट थी एवं उन्होंने इन नीतिविधियों को सहज व संक्षेप रूप से दस भागों में बांटा है। इन नीति-विधियों को दशविध संस्कार कहा जाता है। जिससे विधि के अनुसार विवाह के द्वारा सुसन्तान का जन्म हो एवं जन्म से लेकर विवाह तक उसका मनुष्यत्व रूप बीज वृत्ति-प्रवृत्ति रुप जैसे झाड़-झंखाड़ों से नष्ट न हो, उसके निमित्त ही मानवजीवन की पैदाइश से विवाहकाल तक का महापुरूषगण ने दशविध अनुष्ठान या संस्कार का प्रवर्तन किया हैं। सत्, सुन्दर और बलिष्ठ चरित्रवाले मानव के द्वारा समाज का शरीर जिससे पुष्ट व उन्नत हो एवं जगत में जिससे शान्ति और श्रंखला, प्रेम और भक्ति विराज करे, ऐसी आदर्श दृष्टिभंगिमा लेकर ही ऋषियों ने उन संस्कारों का प्रवर्तन किया था।

दशविध संस्कार के विषय में संक्षेप में यहां आलोचना की जा रही है।

1- गर्भाधान, 2- पुसवन, 3- सीमन्तोन्नयन, 4- जातकर्म, 5- नामकरण,
6-निष्कामन, 7- अन्नप्राशन, 8- चूड़ाकरण, 9- उपनयन और 10- विवाह।

शास्त्र में दशविध संस्कार चार भाग में बांटे गये हैंः

क - गर्भाधान, पुसवन और सीमान्तोन्नयन -- ये तीना संस्कार गर्भ-संस्कार के अन्तर्गत हैं। गर्भ में जिससे सुसंस्कारयुक्त अच्छा बीज आये एवं भ्रूण भी जिससे यथोचित पुष्टि लाभ कर सके - ऐसी दृष्टिभंगिमा लेकर इन तीनों संस्कार का प्रवर्तन हुआ है। सन्तान के भूमिष्ठ होने के पहले ही उसकी मनोवृत्ति गठित होती है, महापुरूषों ने ऐसा ही कहा हैं।

ख - जातकर्म, नामकरण, निष्कामण और अन्नप्राशन - ये चारों शैशव संस्कार हैं। उत्तम बीज से अंकुरित होने पर परिमित जल और खाद के संयोग से छोटे-छोटे पौधे जिस तरह सहज भाव से पुष्ट होते हैं, उसी तरह मानव जीवन में भी अच्छा संस्कार युक्त शिशु होने पर यदि शैशव काल से ही उसे धर्मीय अनुष्ठान के द्वारा प्रेरणा दी जाय तो उसका भी मन निःसंन्देह सहज में अपने वैशिष्ट्य के अनुसार उन्नत होगा।

ग - चूड़ाकरण और उपनयन कैशोर संस्कार - कैशोर में बुद्धि विकास के बाद आचार्य का आदेश निष्ठासहित पालन करके जिससे चरित्र बने और ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे लिए ऋषि के द्वारा ये दो विधियां प्रवर्तित हुई हैं।

घ - अन्त में विवाह अर्थात यौन-संस्कार आचार्य के निर्देषानुसार जिससे जीवन को परिचालित कर ज्ञान और चरित्र अर्जन के बाद विधि अनुसार यौन मिलन के द्वारा सुमानव का जन्म हो, इसी उद्येश्य हेतु ऋषियों ने संस्कार का प्रवर्तन किया।

पूर्ण विवरण हेतु सात्वती मई 2004 देखें।